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विजय, विवेक और विभूति

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :31
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9827

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विजय, विवेक और विभूति का तात्विक विवेचन

।।श्री रामः शरणं मम।।

विजय, विवेक और विभूति

वस्तुतः विजय पर्व का अर्थ यह है कि भगवान् राम की रावण पर जो विजय हुई उसे हम किस दृष्टि से देखें? वास्तविक महत्व इसी का है। यों कहें कि जब वर-कन्या का विवाह शास्त्रीय विधि से मण्डप में सम्पन्न होता है तो उस अवसर पर चारों ओर कितने उत्साह और आनन्द का वातावरण होता है। चारों ओर व्यंग्य, विनोद, हास्य और आनन्द की धारा बहती है, पर हम सब यह जानते हैं कि इस आनन्द की वास्तविक परीक्षा मण्डप में नहीं होती, बल्कि उसके पश्चात् वर और वधू ने उस विवाह को किस रूप में लिया, उसमें जिन विधियों की ओर संकेत किया गया और उनके पालन का निर्देश किया गया, उनका वास्तविक तात्पर्य क्या है? और उस तात्पर्य को हम जीवन में एक-दो दिनों के लिए ही नहीं बल्कि सदा के लिए उतारते हैं कि नहीं?

विवाह का उत्सव तो एक-दो दिनों के लिए ही होता है, परन्तु उसकी परीक्षा तो सारे जीवन में होती है। विवाह के मण्डप में जो प्रेरणा वर-वधू को प्राप्त होती है, यदि उसका समुचित निर्वाह और पालन होता है तब तो विवाहोत्सव की सार्थकता है और यदि केवल बाजे बजा करके, गीत गा करके, स्वादिष्ट व्यंजनों का भोग लगा करके हम विवाह का आनन्द लें तो यह आनन्द तो क्षणिक ही होगा। वस्तुतः यही सत्य है। श्रीराम की रावण पर विजय का तात्पर्य क्या है?

लंकाकाण्ड में इस विजय का वर्णन किया गया है, उसका अन्तिम दोहा क्या है? आपने पढ़ा होगा। आप यह जानते हैं कि श्रीराम के चरित्र का वर्णन करते हुए अन्त में यह बताया गया है कि इस चरित्र का फल क्या है? लंकाकाण्ड का फलादेश है –

सम  बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं  सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।। 6/ 121क

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